मक्रवाहिनी की प्रतिमा विश्व में इकलौती है। कल्चुरी कालीन इस प्रतिमा में मां नर्मदा के अवतरण की शिल्प कला दिखती है। दरअसल मगर को संस्कृत में मक्र कहा गया है जो मां नर्मदा का वाहन है। इसलिए इसका नाम मक्रवाहिनी पड़ा। इस प्रतिमा कि खासियत यह है कि लोगों को यह दिन में तीन अलग अलग रूपों में दर्शन देती है या यूं कहें कि इसके तीन रूप बदलते हैं . सुबह यह कन्या स्वरूप में दोपहर युवा रूप में तथा रात्रीं के समय उम्रदराज रूप में दर्शन होते हैं .....
प्रतिमा का निर्माण
राजा कर्ण को वाराणसी बहुत प्रिय थी और उसने मंदिर और एक बस्ती भी बनाई थी। वहीं उसे नर्मदा नदी के महात्म्य के बारे में जानकारी मिली थी। उन्हें पता चला कि नर्मदा के दर्शन मात्र से पाप दूर हो जाते हैं और विश्व में केवल इसी नदी की परिक्रमा होती है। इसलिए मां मक्रवाहिनी की मूर्ति का निर्माण कराया गया। ताकि दर्शन लाभ और उनकी प्रतिमा की परिक्रमा कर नर्मदा की परिक्रमा का लाभ उठाया जा सके। यह भी तथ्य था कि नर्मदा कुंवारी हैं इसलिए प्रतिमा के दर्शन करना ही उचित होगा। यह भी सत्य है कि कल्चुरी राजाओं ने स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया है इसलिए संभव है कि जल प्रदूषण को लेकर भी कोई विचार रहा हो। इसलिए देवउठनी ग्यारस को इनकी स्थापना की गई।
दो पहलवान लेकर आये थे पान दरीबा तक मूर्ति
इतिहासविद् डॉ. आनंद सिंह राणा के अनुसार वर्ष 1860 में जबलपुर में रेलवे लाइन बिछ रही थी। तब तेवर से मूर्तियों और पत्थरों को तोड़कर लाया जा रहा था। कुछ मूर्तियों को यहां से ब्रिटेन और अमेरिका भेज दिया गया। लेकिन यह प्रतिमा बच गई। उस समय पान दरीबा में हल्कू हलवाई रहते थे। वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे। त्रिपुरी में जब खुदाई चल रही थी तो मूर्ति निकालने की बात हल्कू पहलवान को पता चली। उसने तुरंत अपने दो पहलवान बेटे, मित्रों और रिश्तेदारों को भेजकर मूर्ति को कंधों पर लादकर लाने को कहा। इस तरह पान दरीबा की गली के मुहाने पर मक्रवाहिनी मंदिर बनवाया गया।
6 कुओं पर विराज,मान है मकरवाहिनी ...
जिस जगह पर मंदिर बना है वहां सात कुएं थे। 6 कुओं पर मंदिर प्रांगण बना और एक कुआं सार्वजनिक उपयोग के लिए छोड़ दिया गया। तब से देवउठनी ग्यारस को महाआरती की प्रथा शुरू हुई। लेकिन धीरे-धीरे मंदिर जर्जर होने लगा। तब संवत 2024 को इसका पुनर्निर्माण शुरू हुआ और संवत 2026 में इसका निर्माण पूरा हुआ और 7 नदियों के जल से अभिषेक कर प्रतिमा पुनःस्थापित की गई।
कल्चुरी काल की शिल्प कला को उत्तर और दक्षिण क्षेत्र के मूर्ति शिल्प का सर्वोत्तम नमूना माना जाता है। इस काल की शिल्प को कल्चुरी शिल्प कला कहा जाता है। दरअसल कल्चुरीकाल की स्थापना के बाद राजा कर्ण सर्वप्रमुख राजा साबित हुए। उस काल में उन्होंने सन 1041 से 1072 तक शासन किया। एक बार गंगा नदी में जाने के बाद राजा को ज्ञात हुआ कि नदी में नहाने से पाप खत्म हो जाते हैं। इसी बात को आधार बनाते हुए राजा ने मक्रवाहिनी प्रतिमा का निर्माण करवाया।
सेंड स्टोन पर बनी है प्रतिमा .....
कल्चुरी शिल्प का स्वर्ण युग राजा युवराजदेव के समय प्रारंभ हुआ। जब उनका विवाह आंध्रप्रदेश की चालुक्य राजकुमारी नोहला देवि से हुआ। नोहला देवि ने दक्षिण से शैव आचार्यों को त्रिपुरी (जबलपुर) बुलाया और फिर शुरू हुआ कल्चुरी शिल्प। कटनी के पास बिलहरी में नोहलेश्वर का मंदिर बनाया गया और वहीं से बलुआ पत्थर कल्चुरियों की राजधानी त्रिपुरी लाया जाने लगा और उसके उपरांत कल्चुरी शिल्प का अद्भुत विकास हुआ।
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