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आपकी नब्ज पर उनकी पकड़


सोवियत संघ के मशहूर लेखक अलेक्जेंडर सोल्झेनीत्सन ने द गुलॉग आर्किपेलगो में एक काल्पनिक किस्सा बयान किया था। आप भी सुनिए- तानाशाह जोसेफ स्टालिन भाषण दे रहा था। सभागार में बैठे सभी श्रोता दत्तचित्त होकर सुन रहे थे। उनकी आंखें विभोर हुई जा रही थीं। भाषण खत्म हुआ, लोग सम्मानपूर्वक उठ खडे़ हुए, तालियां बजने लगीं। आमतौर पर यह करतल ध्वनि कुछ सेकंड में रुक जाती, मगर वहां स्टालिन खुद मौजूद था, लिहाजा तालियां बजती रहीं। लोगों के हाथ दुखने लगे, सिर चकराने लगे, पर सबको इंतजार था कि कोई और रुकने की पहल करे।

श्रोताओं की भीड़ में कागज फैक्टरी का एक निदेशक भी था। उसने सबसे पहले ताली बजानी बंद की और अपनी कुरसी पर बैठ गया। अन्य लोगों ने तत्काल उसका अनुसरण किया। उसी रात कागज फैक्टरी के निदेशक को घर से उठा लिया गया। उसे अब अपनी शेष जिंदगी साइबेरिया के बर्फीले कैदखाने में गुजारनी थी। कल्पना करें, अगर स्टालिन के पास यह जानने का जरिया होता कि कौन मन से उसको सुन रहा है और कौन बेमन से, तब क्या होता? 

मौजूदा वक्त में तमाम बुद्धिजीवी इस खतरे से धरती के प्राणियों को आगाह कर रहे हैं। वजह यह है कि कोरोना के कारण संसार के तमाम देशों में तरह-तरह के एप अनिवार्य कर दिए गए हैं। इन एप के जरिए जो डाटा जुटाया जा रहा है, अगर वह चिकित्सा विज्ञान के अलावा कहीं और उपयोग में लाया गया, तो तबाही फैल सकती है। इस तर्क के हिमायती मानते हैं कि अब तक लोगों की निगरानी दैहिक मूवमेंट और सोशल मीडिया पर व्यक्त किए गए विचारों के जरिए की जाती थी। ऐसा पहली बार हो रहा है, जब निजी कंपनियों के पास आपकी देह के अंदर की हलचल पहुंच रही है। कौन रक्तचाप का मरीज है, किसे मधुमेह है, किसने कब सर्जरी कराई, कौन किस रोग से ग्रस्त है, किस व्यक्ति का शरीर मौसमी उतार-चढ़ाव या अन्य किसी क्रिया पर कैसी प्रतिक्रिया करता है! इसी वजह से आशंका जताई जा रही है कि जिन देशों में भारत जैसा खुला लोकतंत्र अथवा स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं है, वहां इसका भीषण दुरुपयोग किया जा सकता है। 

कल्पना करें, उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग-उन यह जान सकें कि उनकी मंत्रिपरिषद के कितने लोग समर्पण भाव से उनके साथ हैं और कितने मजबूरी में, तब क्या होगा? यही नहीं, उन्हें इसका भान हो सके कि नागरिकों का रक्तचाप या दिल की धड़कनें किन सरकारी घोषणाओं पर कैसे बढ़ीं अथवा सामान्य रहीं, कितने प्रतिशत लोग खुश रहे और कितने नाखुश। असंतुष्ट जन क्या किसी खास इलाके या समुदाय के हैं अथवा छितराए हुए, तब वह क्या करेंगे? 

जो लोग ग्लोबलाइजेशन के पतन और राष्ट्रवाद के उदय की भविष्यवाणी कर रहे हैं, वे तो लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों को भी इससे अछूता नहीं मान रहे। खुद हमारे देश में फेसबुक को लेकर बहस पुरगर्म है। उसकी भारत स्थित प्रभारी आंखी दास के विरुद्ध रायपुर में आपराधिक मामला दर्ज किया गया है। कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे से सींग लड़ाए हुए हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि संसद के अगले सत्र में इस मामले पर गरमागरम बहस सुनाई दे। इससे पहले आरोग्य सेतु एप पर भी आरोप लगे थे, मगर आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आश्वस्त किया कि आपका डाटा पूरी तरह सुरक्षित है और मामला ठंडा पड़ गया। 

ध्यान रहे। फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का विवादों से पुराना नाता है। साल 2004 में फेसबुक वजूद में आया था। एक साल बाद ही दिसंबर 2005 में इस पर आरोप लगने शुरू हो गए थे कि इसके यूजर्स का डाटा असुरक्षित है। मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के दो शोधार्थियों ने 70 हजार फेसबुक यूजर्स का डाटा डाउनलोड कर इस आशंका को सच साबित कर दिया था कि इस प्लेटफॉर्म का दुरुपयोग ‘डाटा माइनिंग’ के लिए किया जा सकता है। नवंबर 2011 में तो सनसनी ही फैल गई, जब लोगों को मालूम पड़ा कि फेसबुक उन लोगों की भी खोज-खबर ले रहा है, जिनका अकाउंट इस प्लेटफॉर्म पर नहीं है। बेल्जियम में तो बाकायदा इस पर मुकदमा चला और वहां के प्राइवेसी कमिश्नर ने इसे अपने कानून का गंभीर उल्लंघन मानते हुए आदेश दिया कि अगर नॉन-यूजर्स की निगरानी बंद नहीं की गई, तो कंपनी को रोजाना दो लाख इक्यावन हजार पौंड का जुर्माना भरना पडे़गा। 

ऐसा नहीं है कि इसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के संचालक दोषी हैं। पिछले ही महीने जो बिडेन, बराक ओबामा, बिल गेट्स समेत कई नामचीन अमेरिकियों के ट्विटर अकाउंट हैक कर लिए गए थे। हैकर्स ने उनके निजी संवादों की पड़ताल की थी, जिससे तूफान उठ खड़ा हुआ था। बाद में कंपनी के सीईओ जैक डोर्सी को इसके लिए सार्वजनिक तौर पर क्षमा याचना करनी पड़ी थी। 

यहां कैंब्रिज एनालिटिका की चर्चा जरूरी है। इस कंपनी पर आरोप लगा था कि उसने सुनियोजित तरीके से 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर असर डाला। आरोप लगाने वालों का दावा था कि उस कंपनी ने लगभग साढे़ आठ करोड़ फेसबुक यूजर्स के खातों की अवैध तरीके से निगरानी की। इसके जरिए पता लगाया जा सका कि आम अमेरिकी के मन-मस्तिष्क में कैसा मंथन चल रहा है, उसे कैसे नेतृत्व की जरूरत है और वह किन नीतियों का तलबगार है? इन आरोपों को भले ही प्रमाणित न किया जा सका हो, पर यह सच है कि इससे आशंकाओं के नए पठार उग आए। फेसबुक को तो इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उसके शेयर जमींदोज हो गए और महज एक दिन में उसे 119 अरब डॉलर का झटका लगा। 

इजरायल के हाइफा विश्वविद्यालय के शोधार्थी गैब्रिएल बाइमन ने तो नब्बे के दशक के मध्य में ही इस बहस को जन्म दिया था। उन्होंने गहन शोध के बाद पाया था कि आतंकी संगठन अपनी 90 फीसदी भर्तियां इन्हीं सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए करते हैं। आपने किन विषयों को पढ़ा, कौन से वीडियो देखे, कैसे विचार व्यक्त किए, अपने प्रिय एवं परिजनों से कैसे संदेशों का आदान-प्रदान किया, इन सबके अध्ययन के जरिए वे पहले नौजवानों के दिमाग में झांकते हैं। इससे उन्हें नफरत के बीज बोने में आसानी हो जाती है। आईएसआईएस की सिर कलम करने वाली टीम का अगुआ जेहादी जॉन भी इसी माध्यम से ब्रिटेन से कुवैत होते हुए सीरिया पहुंचा था। तमाम भारतीय नौजवान भी इसी तरह पथभ्रष्ट किए गए थे। अब जब मामला सोशल मीडिया की चौहद्दियां पार कर आपकी देह के अंदर पहुंच गया है, तो इस बात की गारंटी कौन लेगा कि यह डाटा किसी आतंकवादी संगठन, अराजकतावादी समूह, तानाशाही प्रवृत्ति की सरकार, मदमत्त सरकारी अफसरों अथवा लोलुप दवा कंपनियों के लिए नए दरवाजे नहीं खोलेगा? 

यहां जॉर्ज ओरवेल और उनके उपन्यास 1984  का कथन याद आ रहा है- बडे़ भाई देख रहे हैं। आज वे होते, तो यह जानकर अचरज में पड़ गए होते कि ‘बिग ब्रदर’ ने लोगों की चमड़ी के अंदर झांकने तक की शक्ति अर्जित कर ली है।

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